
रतनपुर (बिलासपुर):—
जब कोई एक महिला अपने टूटे हुए परिवार को सहारा देकर वर्षों तक संघर्ष करे, समाज और सिस्टम से अकेले जूझे, और फिर भी हार न माने — तो वो सिर्फ़ एक नाम नहीं, एक प्रतीक बन जाती है। रतनपुर के वार्ड नम्बर 2 में रहने वाली भगवती कैवर्त की कहानी भी कुछ ऐसी ही है — साहस, संघर्ष और आज की व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती एक मार्मिक दास्तान।
संघर्ष जिसकी गूंज अब पूरे कस्बे में है
भगवती का घर चारदीवारी से नहीं, तकलीफ़ों से घिरा है। उनके पिता लकवाग्रस्त हैं, भाई मानसिक रूप से विकलांग है और मां वृद्ध। इस टूटे-फूटे परिवार की एकमात्र संबल स्वयं भगवती है।लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि उनके घर से बाहर निकलने तक का भी कोई वैध रास्ता नहीं था। लंबे समय से कुछ दबंग पड़ोसियों ने आम रास्ते को कब्जा कर लिया था। भगवती थानों, तहसीलों, नगर पालिका और नेताओं के चक्कर काटते-काटते थक चुकी थी।
जब सुशासन तिहार बना आशा की अंतिम किरण——–
हारती नहीं, झुकती नहीं — ऐसी भगवती ने छत्तीसगढ़ शासन द्वारा आयोजित “सुशासन तिहार” में अपनी पीड़ा को कागज पर उतारा। वह आवेदन प्रशासन तक पहुँचा और यह आवेदन सिर्फ एक पत्र नहीं, एक करुण पुकार थी।इस पर संवेदनशीलता दिखाते हुए तहसीलदार शिल्पा भगत ने स्वयं मौके पर पहुँच कर निरीक्षण किया और पाया कि रास्ते पर जबरन कब्जा कर रास्ता बंद कर दिया गया है। तहसीलदार ने तत्काल कानूनी कार्रवाई करते हुए अवैध कब्जा हटवाया और 8 फीट चौड़ा रास्ता भगवती और उसके परिवार को दिलाया।
भगवती की आंखों में खुशी के आँसू थे। वह बोली ———–
“पहली बार मुझे लग रहा है कि शासन सच में जनता की सुनता है। सुशासन तिहार ने मुझे मेरी आवाज़ लौटा दी।”
लेकिन यह राहत टिक नहीं पाई…———
कुछ ही दिन बीते थे कि वही दबंग फिर से सक्रिय हो गए। उन्होंने न केवल रास्ते को दोबारा घेर लिया, बल्कि दीवार खड़ी कर एक बार फिर उस महिला को उसके घर में बंद कर दिया — जैसे उसकी आज़ादी, उसकी हिम्मत और उसकी इंसानियत पर ताला जड़ दिया गया हो।अब भगवती फिर उसी मोड़ पर खड़ी है, जहाँ वह कभी सुशासन तिहार से पहले थी — लाचार, अकेली, लेकिन फिर भी हार मानने को तैयार नहीं।
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प्रशासन से सवाल, समाज से आग्रह——-
क्या एक महिला को जीने के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी? क्या दबंगों के आगे न्याय हमेशा हार जाएगा? तहसीलदार शिल्पा भगत जैसी अधिकारियों की संवेदनशीलता और ईमानदारी की प्रशंसा जरूर है, लेकिन क्या वह न्याय अब स्थायी हो पाएगा? या फिर यह मामला भी कागज़ों की फाइलों में दफन होकर रह जाएगा?
आज भगवती की ज़ुबान पर फिर वही सवाल है ——-
“क्या मैं अकेले इन दबंगों से लड़ पाऊंगी? क्या फिर से प्रशासन मेरी पुकार सुनेगा?”इस बार जवाब शासन को देना होगा, सिस्टम को देना होगा और समाज को भी।
अब आगे——??—-
जहाँ एक औरत अपने परिवार के लिए लड़ रही है, वहाँ सुशासन को सिर्फ योजना नहीं, जीवन रक्षक बनना होगा।
क्योंकि अगर न्याय बार-बार छीना जाएगा, तो विश्वास की नींव ही टूट जाएगी।