
रतनपुर – माँ महामाया के आँगन में एक बार फिर राजनीति का खेल भारी पड़ गया। जिस शक्ति पीठ के चरणों में लाखों श्रद्धालु अपना सिर झुकाते हैं, वहाँ नगरवासियों की आवाज़ अनसुनी रह गई।
कहानी की शुरुआत
21 सदस्यीय ट्रस्ट का चुनाव होना था। नगरवासियों को उम्मीद थी कि इस बार मंदिर की गरिमा और आस्था की रक्षा होगी। ठाकुर आशीष सिंह को सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुना गया—यहाँ तक सब ठीक था। लेकिन जैसे ही अध्यक्ष की कुर्सी मिली, एक ऐसा फैसला लिया गया जिसने पूरे नगर को हिला दिया।
विवाद की जड़
कछुआ कांड—एक ऐसा कलंक, जिसने न सिर्फ नगर बल्कि मंदिर की पवित्रता को भी दागदार किया। इसी कांड का मुख्य आरोपी, जिसे पद से दूर रखने की माँग नगरवासी वर्षों से करते आ रहे थे, उसे अचानक ट्रस्ट में पदाधिकारी बना दिया गया।
नगर का आक्रोश
लोगों ने विरोध किया, मंदिर प्रांगण में आकर आवाज़ बुलंद की, पर लगता है विरोध की गूंज राजनीतिक समझौतों की दीवारों से टकराकर लौट आई। चर्चा है कि 14 सदस्यों के आंकड़े और “तुम मुझे अध्यक्ष बनाओ, मैं तुम्हें बाकी पद दूँगा” जैसे सौदे ने यह रास्ता बनाया।
‘चुनरी वाले बाबा’ का जादू
नगर में कानाफूसी है—क्या यह सिर्फ 14 सदस्यों की ताक़त थी या “चुनरी वाले बाबा” का असर? क्या आस्था पर सत्ता का सौदा हो गया?
लोग पूछ रहे हैं—माँ महामाया के दरबार में, जहाँ न्याय और सत्य की प्रतीक देवी विराजती हैं, वहाँ जनता की आवाज़ क्यों दबा दी गई?
नगरवासियों की पीड़ा
एक बुजुर्ग श्रद्धालु ने आंसू भरी आँखों से कहा—
“हम तो माँ के दरबार में सच्चाई की जीत देखने आए थे, पर यहाँ तो राजनीति जीत गई और आस्था हार गई।”
रतनपुर का माहौल आज भी सवालों से भरा है—आख़िर यह चुनाव था, सौदेबाज़ी थी, या किसी अदृश्य ताक़त का खेल?