
रतनपुर :—
रतनपुर के मेला ग्राउंड में बन रहा कुर्मी समाज सामुदायिक भवन आज भी अधूरा पड़ा है। चार साल पहले इस भवन के निर्माण के लिए नगरपालिका ने 49 लाख रुपये की लागत से टेंडर जारी किया था। समाज में उत्साह था, सपने थे — कि अब एक ऐसा स्थान बनेगा जहां सामाजिक आयोजन, सांस्कृतिक कार्यक्रम, विवाह, सम्मेलन और समाज की बैठकें गरिमामयी ढंग से संपन्न हो सकेंगी।
परंतु अफसोस… यह सपना धीरे-धीरे धुंधलाता गया।
शुरुआत से ही निर्माण कार्य कछुए की चाल से आगे बढ़ता रहा और बीते दो वर्षों से तो काम पूरी तरह से बंद पड़ा है। केवल अधूरी दीवारें और वीरान ढांचा इस बात की गवाही देते हैं कि एक समाज की उम्मीदें किस कदर अनदेखी की जा रही हैं।
कुर्मी बाहुल्य रतनपुर, पर उपेक्षित समाज भवन
रतनपुर नगर पालिका के 15 वार्डों में कुर्मी समाज की जनसंख्या निर्णायक मानी जाती है। यही समाज हर चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। पिछली बार जब नगरपालिका चुनाव हुए, तो कुर्मी समाज ने अपने एक प्रतिनिधि को एकजुट समर्थन दिया। उनके भारी बहुमत की बदौलत लवकुश कश्यप जैसे युवा नेता को नगर पालिका अध्यक्ष की कुर्सी मिली
उस समय समाज में उम्मीदों का सैलाब था —
“अब तो अपना आदमी सत्ता में है, अब भवन पूरा होकर रहेगा।”
लेकिन हकीकत इससे बिल्कुल उलट साबित हुई। सत्ता में आए छह महीने बीत चुके हैं, और भवन की ओर अब तक एक ईंट भी नहीं जोड़ी गई है।
लापरवाही या साजिश?
लोगों में चर्चा है — क्या यह ठेकेदार की मनमानी है? या फिर नगर पालिका के सीएमओ और इंजीनियर की लापरवाही?
क्या जानबूझकर इसे टालमटोल किया जा रहा है?
या फिर समाज की भावनाओं के साथ किया जा रहा है मज़ाक?
जो भी कारण हो, पर समाज को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। चुनाव में एकतरफा साथ देने वाला समाज अब खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।
भरोसा आज भी जिंदा है… पर कब तक?
भले ही मन में मायूसी है, लेकिन समाज का भरोसा आज भी अपने प्रतिनिधि पर है।
“हमने उन्हें कुर्सी तक पहुंचाया, वो हमारा भवन जरूर पूरा करेंगे…”
यह विश्वास आज भी लोगों की आंखों में झलकता है।
नगरपालिका अध्यक्ष लवकुश कश्यप ने बयान दिया है कि “बहुत जल्द भवन के लिए पुनः टेंडर निकाला जाएगा।”
लेकिन समाज पूछ रहा है —
“क्या फिर वही वादे होंगे? या इस बार ईमानदार शुरुआत होगी?”
अंत में…
यह सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारत नहीं है — यह कुर्मी समाज की पहचान है, उनका आत्मसम्मान है।
अगर यही अधूरी रह गई, तो यह एक अधूरे वादे की मिसाल बनकर रह जाएगी।
अब निगाहें उसी कुर्सी की ओर टिकी हैं, जिसे समाज ने अपना मानकर सजाया था।
कब चलेगा निर्माण कार्य?
कब मिलेगी समाज को अपनी पहचान की छांव?
या फिर कुर्मी समाज के वोट की कद्र सिर्फ चुनाव तक ही सीमित रह जाएगी…?